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इस्लाम में पापों की अवधारणा (3 का भाग 1)

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विवरण: इस पाठ मे हम पाठकों को पापों, उनके प्रकार, और उनकी गंभीरता से परिचित कराएंगे और बताएंगे की उनके लिए क्षमा कैसे मांगे और आने वाले जीवन में ये व्यक्ति को कैसे प्रभावित करेंगे।

द्वारा Imam Mufti (© 2013 NewMuslims.com)

प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022

प्रिंट किया गया: 22 - ईमेल भेजा गया: 0 - देखा गया: 2,559 (दैनिक औसत: 3)


उद्देश्य:

·पाप और अविश्वास की परिभाषा जानना।

·पापों के प्रकार जानना।

·अविश्वास के कुछ उदाहरण जानना।

·यह जानना कि अविश्वासी कौन है।

·उन 4 कारणों को जानना जो एक मुसलमान को काफिर बनने से बचाते हैं।

·यह जानना कि क्या कोई व्यक्ति इस्लाम छोड़ने के बाद वापस इस्लाम अपना सकता है।

अरबी शब्द:

·ईमान - आस्था, विश्वास या दृढ़ विश्वास।

·कुफ्र - अविश्वास।

·काफ़िर - (बहुवचन: कुफ़्फ़ार) अविश्वासी।

·शहादा - आस्था की गवाही

·शरिया - इस्लामी कानून।

·शिर्क - एक ऐसा शब्द जिसका अर्थ है अल्लाह के साथ भागीदारों को जोड़ना, या अल्लाह के अलावा किसी अन्य को दैवीय बताना, या यह विश्वास करना कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य में शक्ति है या वो नुकसान या फायदा पहुंचा सकता है।

·सुन्नत - अध्ययन के क्षेत्र के आधार पर सुन्नत शब्द के कई अर्थ हैं, हालांकि आम तौर पर इसका अर्थ है जो कुछ भी पैगंबर ने कहा, किया या करने को कहा।

पाप की परिभाषा और उसके प्रकार

ConceptofSin1.jpgपाप को अवज्ञा के कार्य के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें व्यक्ति अल्लाह के आदेश को पूरा नहीं करता। एक पापी क़ुरआन या सुन्नत में दिए गए अल्लाह के आदेश को न मान के शरिया का खंडन करता है। निषिद्ध चीज़ों को करके और अनिवार्य चीज़ों को छोड़कर ईश्वरीय आज्ञाकारिता से "बाहर निकलने" को विद्वानों ने पाप बताया है। इस्लाम सिखाता है कि आदमी पापी पैदा नहीं होता, बल्कि पाप करने पर वह पापी बन जाता है।

पापों को इसमे वर्गीकृत किया जा सकता है:

ए) कुफ्र (अविश्वास): यह व्यक्ति को इस्लाम से बाहर ले जाता है और उसे काफिर बना देता है। इस पाप के उदाहरणों को नीचे स्पष्ट किया जाएगा, लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि कुफ्र व्यक्ति को इस्लाम से बाहर ले जाता है जब वे अपने करने वाले पापों की प्रकृति और गंभीरता को जानते हैं। संक्षेप में, कुफ्र पूरी तरह से इस्लाम और ईश्वरीय आज्ञाकारिता से "बाहर निकलने" का कारण बनता है। कुफ्र करने वाले व्यक्ति को 'अविश्वासी' (अरबी: काफिर) कहा जाता है और वह मुसलमान नही कहलाता है। यदि वह इस अवस्था में मर जाता है, तो वह नर्क में प्रवेश करेगा और सदा वहीं रहेगा (क़ुरआन 9:84; 24:55)। यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई सामान्य व्यक्ति किसी को काफिर (अविश्वासी) न कहे; यह इस्लामी विद्वानों द्वारा जारी एक आदेश है। अगर कोई मुसलमान दूसरे को कुफ्र करते हुए देखता है तो उन्हें उस व्यक्ति को बार-बार समझाना चाहिए, लेकिन उसे 'काफिर' नही कहना चाहिए।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अविश्वासी बनने के बावजूद, व्यक्ति मृत्यु से पहले किसी भी समय इस्लाम में फिर से प्रवेश कर सकता है।

बी)बड़े और छोटे पाप: जो बड़े और छोटे पाप करता है वह पूरी तरह अविश्वासी नहीं बनता, और इस्लाम के दायरे में रहता है (क़ुरआन 49:6; 2:282)। ऐसा व्यक्ति मुस्लिम तो रहता है, लेकिन कम आस्था (अरबी: "ईमान") के साथ।

अगले पाठों मे अविश्वास की व्याख्या होगी।

अविश्वास की परिभाषा

“अविश्वास" (अरबी: कुफ्र) को सभी मुस्लिम विद्वानों ने आस्था (अरबी: ईमान) न होने के रूप में परिभाषित किया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति इसके बारे में बोलता है या इसे दिल में रखता है।[1] दूसरे शब्दों में, 'अविश्वास' (अरबी: कुफ्र) कोई भी ऐसा शब्द, कार्य या विश्वास है जो आस्था (अरबी: ईमान) का खंडन करता है।

अविश्वास के उदाहरण

1.शिर्क करना।

2.ईश्वर और क़ुरआन को कोसना या नफरत करना।

3.पैगंबर मुहम्मद से नफरत करना, कोसना, गाली देना या उनका मजाक बनाना भले ही कोई व्यक्ति उनकी सच्चाई पर विश्वास करता हो।

4.कहना कि पैगंबर मुहम्मद ने झूठ बोला था।

5.यह जानना कि पैगंबर ने सच बताया था, लेकिन उनकी शिक्षाओं का पालन करने से इनकार करना।

6.इस्लाम की किसी भी शिक्षा का मजाक बनाना।

7.किसी मूर्ति के सामने झुकना।

8.जिस तरह ईसाई यीशु की पूजा करते हैं, उसी तरह पैगंबर मुहम्मद की पूजा करना।

अविश्वासी या काफिर कौन है?

अविश्वासी वह व्यक्ति है जो पैगंबर मुहम्मद के संदेश में अविश्वास करता है। यह वह है जिसने दो गवाही नहीं दी है, सही इस्लामी आस्था (ईमान) की कमी है, या कोई अन्य विश्वास रखता है, कोई शब्द कहता है, या अविश्वास का कार्य करता है।

यहां समझने के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यदि कोई व्यक्ति जो आस्था की गवाही (शहादा) का उच्चारण करके मुसलमान बना है, वह विश्वास रखता है, कहता है, या कुफ्र करता है, तो वह अनिवार्य रूप से अविश्वासी नहीं बन जाता। कारण यह है कि मुसलमान बनने के बाद कुछ बाधाएं आती हैं जो व्यक्ति को काफिर बनने से रोकती हैं।

वह कारण जो व्यक्ति को अविश्वासी बनने से बचाते हैं

एक मुसलमान अविश्वास में पड़ सकता है, लेकिन निम्नलिखित में से किसी एक कारण से काफिर नहीं बन सकता:[2]

1.अज्ञानता

एक धर्मांतरित मुस्लिम जो एक दूरस्थ क्षेत्र में पला-बढ़ा है, या एक मुसलमान जो एक अधार्मिक वातावरण में पला-बढ़ा है, वह इस्लाम के मूल विश्वासों, धार्मिक कर्तव्यों और निषेधों से अनभिज्ञ हो सकता है। उदाहरण के लिए, ऐसे व्यक्ति को यह नहीं पता होगा कि इस्लाम मे समलैंगिकता पर प्रतिबंधित है या दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। ये लोग कुफ़्र में पड़ सकते हैं, लेकिन काफ़िर नहीं बनेंगे क्योंकि अल्लाह उनकी अज्ञानता के कारण उन्हें माफ़ कर सकता है।

2.गलती

व्यक्ति गलती से कुछ ऐसा कर सकता है जिसका उसने कभी इरादा नहीं किया था। वह बस अनजाने में गलती कर सकता है। उदाहरण के लिए, इस्लाम में परिवर्तित नया मुसलमान यह सोच सकता ​​​​है कि केवल प्रार्थना के समय शराब का सेवन करना मना है। शाब्दिक दृष्टिकोण से, शराब को वैध मानते हुए इसका सेवन अविश्वास का कार्य है, लेकिन इस व्यक्ति ने अनजाने मे गलती की है जिसके कारण वो काफिर नहीं बनेगा।

3.बाध्यता

व्यक्ति अविश्वास के शब्द कहने या अविश्वास करने के लिए मजबूर हो सकता है यदि उसे अपने जीवन या अपने अंग या अपने प्रियजनों के जीवन का खतरा लगे। यदि ऐसी किसी भी स्थिति में दिल मे हमेशा इस्लामी आस्था और ईमान बना रहे, तो व्यक्ति कुफ्र कह सकता है या कर सकता है (16:106)।

4.गलत अर्थ समझना

व्यक्ति को किसी चीज़ का पालन करने मे भ्रम हो सकता है और कुछ गलत समझ हो सकती है, यह सोचकर कि वह जो मानता है वह वास्तव में इस्लाम का हिस्सा है जबकि ऐसा नहीं है।

इस्लाम छोड़ने के बाद वापस इस्लाम अपनाना

कोई व्यक्ति जिसने जानबूझकर इस्लाम को छोड़ दिया, वह फिर से मुसलमान बन सकता है। उसका 'पश्चाताप' इस्लाम में फिर से प्रवेश करना है और वह आस्था की गवाही (शहादा) को दोहराकर ऐसा करता है।

यदि उसने एक अनिवार्य कर्तव्य का विरोध करने के लिए इस्लाम छोड़ा था, तो उसे उस कर्तव्य को भी स्वीकार करना चाहिए। मान लो वह रोजाना की पांच नमाज की बाध्यता को अस्वीकार करता था। जब वह इस्लाम में फिर से प्रवेश करेगा, तो उसे स्वीकार करना चाहिए कि इन नमाज़ो की आवश्यकता है, अन्यथा उसका पश्चाताप स्वीकार नहीं किया जाएगा।



फुटनोट:

[1] मजमू फतावा ली इब्न तैमिया, खंड 20, पृष्ठ 86

[2] डॉ. मुहम्मद अल-वुहैबी द्वारा लिखित नवाकिद अल-इमान अल-इतिकादिया वा धवाबित अल-तकफिर इंद-अस-सलाफ, खंड 1, पृष्ठ 225 - खंड 2, पृष्ठ 36

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