उपवास और दान के आध्यात्मिक लाभ
विवरण: इस्लाम के पांच स्तंभों में से दो का संक्षिप्त विवरण, इनकी उच्च स्थिति के पीछे के कारण और पूजा के इन कृत्यों में पूरी तरह से भाग लेने के आध्यात्मिक लाभ।
द्वारा Aisha Stacey (© 2016 NewMuslims.com)
प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022
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उद्देश्य:
·सवम और ज़कात के विधान और उनसे जुड़े कुछ आध्यात्मिक लाभों के पीछे के ज्ञान को समझना।
अरबी शब्द:
·दुआ - याचना, प्रार्थना, अल्लाह से कुछ मांगना।
·हदीस - (बहुवचन - हदीसें) यह एक जानकारी या कहानी का एक टुकड़ा है। इस्लाम में यह पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों के कथनों और कार्यों का एक वर्णनात्मक रिकॉर्ड है।
·हदीस कुदसी - मानवजाति के लिए अल्लाह का संदेश जो पैगंबर मुहम्मद के शब्दों द्वारा दिया गया हो, जो आमतौर पर आध्यात्मिक या नैतिक विषयों से संबंधित होता है।
·रमजान - इस्लामी चंद्र कैलेंडर का नौवां महीना। यह वह महीना है जिसमें अनिवार्य उपवास निर्धारित किया गया है।
·सदक़ा - स्वैच्छिक दान।
·नमाज - आस्तिक और अल्लाह के बीच सीधे संबंध को दर्शाने के लिए अरबी का एक शब्द। अधिक विशेष रूप से, इस्लाम में यह औपचारिक पाँच दैनिक प्रार्थनाओं को संदर्भित करता है और पूजा का सबसे महत्वपूर्ण रूप है।
·सवम - उपवास।
·सुन्नत - अध्ययन के क्षेत्र के आधार पर सुन्नत शब्द के कई अर्थ हैं, हालांकि आम तौर पर इसका अर्थ है जो कुछ भी पैगंबर ने कहा, किया या करने को कहा।
· ज़कात - अनिवार्य दान।
परिचय
इस्लाम धर्म में उपवास और दान दो बहुत महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। दोनों इस्लाम के पांच स्तंभों में से हैं और दोनों के स्वैच्छिक और अनिवार्य दोनों रूप हैं। उपवास का अनिवार्य रूप वह उपवास है जो मुसलमान रमजान के महीने में करते हैं। स्वैच्छिक उपवास पूरे वर्ष (रमजान को छोड़कर) में किए जा सकते हैं। दान के अनिवार्य रूप को ज़कात कहा जाता है और यह किसी व्यक्ति के वार्षिक धन का एक निश्चित हिस्सा है जिसका भुगतान सालाना किया जाता है। स्वैच्छिक दान को सदक़ा कहते हैं। रमजान मे उपवास और दान को अक्सर एक साथ जोड़ा जाता है जब मुसलमान अपने पुरस्कारों को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। उपवास और दान के नियम अन्यत्र पाए जा सकते हैं, यह पाठ इन कृत्यों से प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक लाभों के बारे में है।
उपवास (सवम)
“ऐ विश्वासियों! तुमपर रोज़े उसी प्रकार अनिवार्य कर दिये गये हैं, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किये गये, ताकि तुम अल्लाह से डरो।”(क़ुरआन 2:183)
उपवास आध्यात्मिक शुद्धि का एक कार्य है; यह पूजा का एक महत्वपूर्ण कार्य है जो किसी व्यक्ति को अल्लाह के करीब लाने और उसे धार्मिकता से जुड़े लाभ प्राप्त करने मे मदद करने के लिए बनाया गया है। दिन भर में हर बार जब कोई व्यक्ति खाता या पीता है तो वह अल्लाह को याद करता है। खाने-पीने से परहेज करना ही उपवास का एक आयाम है।
पापपूर्ण व्यवहारों से दूर रहना एक अन्य आयाम है जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। पैगंबर मुहम्मद (उन पर अल्लाह की दया और आशीर्वाद हो) ने कहा कि कुछ लोगों को भूख और प्यास के अलावा अपने उपवास से कुछ नहीं मिलता है।[1] एक अन्य हदीस में उन्होंने कहा कि यदि कोई व्यक्ति झूठे शब्दों और व्यवहार को नहीं छोड़ता है, तो अल्लाह को उसके खाना-पीना छोड़ने की कोई परवाह नही है। [2] उपवास मन को शुद्ध करता है और व्यक्ति को अपने अहंकार और मूल इच्छाओं पर नियंत्रण पाने में मदद करता है और साथ ही व्यक्ति को अपने व्यवहार को संशोधित करने और बुरी आदतों को अच्छे में बदलने का तरीका सिखाता है। सवम उन लोगों के लिए भी करुणा और सहानुभूति सिखाता है जो रोजाना बिना भोजन या पानी के रहते हैं। धैर्य, कृतज्ञता और नम्रता वे सभी ऐसे गुण हैं जिन्हें मुसलमान पाना चाहते हैं और उपवास एक ऐसा तरीका है जो उन्हें अपने दैनिक जीवन में विकसित करने में मदद करता है।
उपवास पूजा का एक बहुत ही खास कार्य है क्योंकि यह कुछ ऐसा है जो उपवास करने वाले व्यक्ति और ईश्वर के बीच होता है। हदीस कुदसी में ईश्वर कहता है, "उपवास मेरे लिए है और सिर्फ मैं इसका इनाम दूंगा।”[3]
उपवास रखने वाले की दुआ खाली नही जाती।[4] इसलिए उपवास करते समय और अपने उपवास को तोड़ते समय बहुत अधिक दुआ करने की अत्यधिक सलाह दी जाती है। उपवास तोड़ने पर अल्लाह लोगों को नर्क की आग से बचाने के लिए चुनता है।[5] उपवास की समाप्ति भी उपवास से जुड़े दो आनंदमय क्षणों में से एक है। दूसरा तब होता है जब कोई व्यक्ति अपने ईश्वर से मिलता है और अपने सफल उपवास का जश्न मनाता है।[6] उपवास एक मजबूत किला भी है जो एक व्यक्ति को नर्क की आग[7] से सुरक्षित रखता है और इसके अलावा, न्याय के दिन उपवास एक व्यक्ति के लिए स्वयं मध्यस्थता करेगा।[8]
दान (ज़कात)
“वास्तव में, जो ईमान लाये, सदाचार किये, नमाज़ की स्थापना करते रहे और ज़कात देते रहे, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास उनका प्रतिफल है और उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।” (क़ुरआन 2:277)
क़ुरआन मे ज़कात शब्द का लगभग 30 बार उल्लेख किया गया है और यह लगभग हर बार नमाज़ के साथ आया है। यह पूजा का एक महान कार्य है, जो उपवास की तरह आध्यात्मिक शुद्धि का अवसर प्रदान करता है। ज़कात के मामले में हालांकि यह देने वाले और लेने वाले दोनों के दिल को शुद्ध करता है और यह व्यक्ति को धन के लालच और कंजूसी से बचाता है। व्यक्ति जो लगन से अपनी ज़कात अदा करता है, वह अल्लाह से निकटता और गरीबों और जरूरतमंदों के लिए जिम्मेदारी महसूस करता है। ज़कात लेना भी अल्लाह का दिया हुआ हक़ है। ज़कात लेने वाला व्यक्ति अपने दिल को उस ईर्ष्या और नफरत से शुद्ध पाता है जो गरीबों में अक्सर अमीर और शक्तिशाली के लिए होती है। इस प्रकार यह भाईचारे के संबंधों को मजबूत करता है।
ज़कात शब्द का शाब्दिक अर्थ है शुद्ध करने वाला और कई कारणों से अल्लाह ने ये कानून बनाया है। यह धन का पुनर्वितरण करता है और सामाजिक न्याय और जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है। इस्लामिक विद्वान इब्न तैमियाह ने कहा कि ज़कात देने वाले की आत्मा धन्य है और उसकी संपत्ति भी। ज़कात देने और लेने वाले व्यक्ति को अल्लाह के सुख, क्षमा और आशीर्वाद से जुड़ी खुशी को महसूस करने का आध्यात्मिक लाभ होता है। जबकि ज़कात से किसी व्यक्ति के धन या पूंजी में कमी नही होती है, यह वास्तव मे आशीर्वाद का एक स्रोत है और इस तरह आर्थिक और आध्यात्मिक रूप से धन में वृद्धि की ओर जाता है।
“कौन है, जो अल्लाह को अच्छा उधार देता है, ताकि अल्लाह उसे उसके लिए कई गुना अधिक कर दे?…” (क़ुरआन 2:245)
ज़कात न देना एक बहुत बड़ा गुनाह है और न देने पर अल्लाह का कोप भुगतना पड़ता है। पैगंबर मुहम्मद हमें बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने धन को उचित रूप से पुनर्वितरित नहीं करेगा, न्याय के दिन यह धन एक जहरीले सांप के रूप में उसके गले मे लिपटा होगा। यह सांप यह कहकर उसके गाल काटेगा कि मैं तुम्हारा खजाना और धन हूं।[9] पैगंबर मुहम्मद हमें यह भी बताते हैं कि यह ज़कात हमारे और विपत्ति के बीच खड़ा होगा।[10]
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