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अल्लाह पर विश्वास (2 का भाग 1): तौहीद की श्रेणियां

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विवरण: तौहीद (एकेश्वरवाद) की अवधारणा आस्था (शहादा) की गवाही के हर भाग मे निहित है। इस दो भाग के पाठ का उद्देश्य आस्तिक को इस अनूठी अवधारणा को समझाना है। भाग एक मे तौहीद की श्रेणियों पर चर्चा है।

द्वारा Imam Mufti

प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022

प्रिंट किया गया: 25 - ईमेल भेजा गया: 0 - देखा गया: 2,689 (दैनिक औसत: 4)


आवश्यक शर्तें

·इस्लाम के स्तंभों और आस्था के अनुच्छेदों का परिचय (2 भाग)।

उद्देश्य

·तौहीद की श्रेणियों को समझना।

अरबी शब्द

·तौहीद - प्रभुत्व, नाम और गुणों के संबंध में और पूजा की जाने के अधिकार में अल्लाह की एकता और विशिष्टता।

·सुन्नत - अध्ययन के क्षेत्र के आधार पर सुन्नत शब्द के कई अर्थ हैं, हालांकि आम तौर पर इसका अर्थ है जो कुछ भी पैगंबर ने कहा, किया या करने को कहा।

·शिर्क - एक ऐसा शब्द जिसका अर्थ है अल्लाह के साथ भागीदारों को जोड़ना, या अल्लाह के अलावा किसी अन्य को दैवीय बताना, या यह विश्वास करना कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य में शक्ति है या वो नुकसान या फायदा पहुंचा सकता है।

अल्लाह (अरबी में सिर्फ एक ईश्वर के लिए उपयोग किया जाने वाला उचित नाम) पर विश्वास में चार चीजें शामिल हैं:

(ए) अल्लाह के अस्तित्व में विश्वास।

(बी) अल्लाह ईश्वर है।

(सी) सिर्फ अल्लाह की ही पूजा की जा सकती है।

(डी) अल्लाह अपने सबसे खूबसूरत नामों और गुणों से जाना जाता है।

(ए) अल्लाह के अस्तित्व में विश्वास

यह आवश्यक नहीं है कि अल्लाह के अस्तित्व को वैज्ञानिक, गणितीय या दार्शनिक तर्कों से सिद्ध किया जाए। उनका अस्तित्व वैज्ञानिक पद्धति या सिद्ध होने के लिए गणितीय प्रमेय द्वारा की जाने वाली 'खोज' नहीं है। सृष्टिकर्ता में प्रत्येक मनुष्य का जन्मजात विश्वास होता है। यह विश्वास सीखने या व्यक्तिगत निगमनात्मक सोच का परिणाम नहीं है। यह बाहरी प्रभाव हैं जो इस सहज विश्वास को बनाता है और एक व्यक्ति को भ्रमित करता है जैसा कि पैगंबर ने कहा:

“ऐसा कोई बच्चा नहीं है जो अल्लाह में स्वाभाविक विश्वास के साथ पैदा नहीं हुआ हो, लेकिन उसके माता-पिता उसे यहूदी, ईसाई या हिन्दू बनाते हैं।” (सहीह अल-बुखारी , सहीह मुस्लिम)

इसके अलावा, केवल सामान्य ज्ञान ही अल्लाह के अस्तित्व की गवाही देता है। जहाज से कोई जहाज बनाने वाले के बारे में जान सकता है, ब्रह्मांड से कोई उसके निर्माता के बारे में जान सकता है। अल्लाह के अस्तित्व को प्रार्थनाओं के उत्तर, पैगंबरो के चमत्कारों और सभी प्रकट शास्त्रों की शिक्षाओं से भी जाना जाता है।

(बी) अल्लाह ईश्वर है

अल्लाह ही आसमान और धरती का इकलौता ईश्वर है। वह भौतिक ब्रह्मांड का स्वामी और मानव जीवन के लिए कानून बनाने वाला है। वह भौतिक संसार का स्वामी और मानव जीवन का शासक है। अल्लाह हर मर्द, औरत और बच्चे का ईश्वर है।

(i) भौतिक जगत का एकमात्र प्रभु और शासक अल्लाह है। यहां 'प्रभु' शब्द का विशेष अर्थ है कि वह निर्माता और नियंत्रक है; स्वर्ग और पृथ्वी का राज्य अनन्य रूप से उसी का है, और वह उनका स्वामी है। वह अकेले ही सब को अस्तित्व मे लाया और सभी अपने संरक्षण और निरंतरता के लिए उस पर निर्भर हैं। उसने ब्रह्मांड का निर्माण किया और इसे निश्चित कानूनों के अनुसार अपने स्वयं के बल पर जीने के लिए नहीं छोड़ा और इसमें कोई और रुचि लेना बंद नहीं किया। सभी प्राणियों को जीने के लिए हर पल अल्लाह की शक्ति की आवश्यकता होती है। उसके सिवा सृष्टि का कोई प्रभु नहीं है।

“(ऐ मुहम्मद) उनसे पूछें कि तुम्हें कौन आकाश तथा धरती से जीविका प्रदान करता है? सुनने तथा देखने की शक्तियां किसके अधिकार में हैं? कौन निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को निकालता है? वह कौन है, जो विश्व की व्यवस्था कर रहा है? वे कह देंगे कि अल्लाह! फिर कहो कि क्या तुम (सत्य के विरोध से) डरते नहीं हो?’” (क़ुरआन 10:31)

वह सदा शासन करने वाला राजा और उद्धारकर्ता, जीवित परमेश्वर है, जो ज्ञानी है। उसके निर्णयों को कोई नहीं बदल सकता। स्वर्गदूत, पैगंबर, मनुष्य, और जानवरों और पौधों के राज्य उसके नियंत्रण में हैं। इतिहास के अनुसार, कुछ लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व को नकारा है; सदियों से अधिकांश लोगों ने एक सर्वोच्च ईश्वर, एक अलौकिक निर्माता में विश्वास किया है।

(ii) मानवजाति का एकमात्र शासक अल्लाह है। अल्लाह सर्वोच्च कानून [1] बनाने वाला है, पूर्ण न्यायाधीश, विधायक, वह सही और गलत को अलग करता है। जिस तरह भौतिक संसार अपने प्रभु के अधीन होता है, वैसे ही मनुष्य को अपने ईश्वर की नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, वह ईश्वर जो उनके लिए गलत को सही से अलग करता है। दूसरे शब्दों में, केवल अल्लाह के पास ही कानून बनाने, पूजा के कृत्यों को निर्धारित करने, नैतिकता तय करने और मानवीय संपर्क और व्यवहार के मानकों को निर्धारित करने का अधिकार है। वही शासक है:

“वही उत्पत्तिकार है और वही शासक है.” (क़ुरआन 7:54)

(सी) सिर्फ अल्लाह की ही पूजा की जा सकती है।

किसी कार्यों के माध्यम से और किसी के दिल के माध्यम से, बाहरी और आंतरिक पूजा सिर्फ अल्लाह की ही की जा सकती है। न केवल उसके अलावा किसी की पूजा की जा सकती है, बल्कि उसके साथ भी किसी और की पूजा नहीं की जा सकती है। पूजा में उसका कोई साथी या सहयोगी नहीं है। व्यापक अर्थों और इसके सभी पहलुओं में पूजा केवल अल्लाह के लिए ही है।

“और तुम्हारा पूज्य एक ही पूज्य है, उस अत्यंत दयालु, दयावान के सिवा कोई पूज्य नहीं।” (क़ुरआन 2:163)

अल्लाह की पूजा के अधिकार पर ज़ोर नहीं दिया जा सकता। यह ला इलाहा इल्लल्लाह का अनिवार्य अर्थ है। एक गैर-मुस्लिम अल्लाह की पूजा के एकमात्र अधिकार की गवाही देकर इस्लाम में प्रवेश करता है। यह अल्लाह में इस्लामी विश्वास की जड़ है, यहां तक ​​कि पूरे इस्लाम में। यह अल्लाह द्वारा भेजे गए सभी पैगंबरो और दूतों का केंद्रीय संदेश था। उन सभी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की:

“अल्लाह की पूजा करो! उसके सिवा तुम्हारा कोई और देवता नहीं है।” (क़ुरआन 7:59, 11: 50, 23:32)

यह इब्राहीम, इसहाक, इस्माइल, मूसा, हिब्रू पैगंबर, यीशु और मुहम्मद का केंद्रीय संदेश था (इन सभी पर शांति हो)। यदि सिर्फ अल्लाह ही बनाता है, जीवन और मृत्यु देता है, भोजन और सुरक्षा देता है, कान और आंख देता है, तो केवल उसी की पूजा की जानी चाहिए।

इस्लाम में पूजा हर वह कार्य, विश्वास, कथन, या दिल की भावना है जिसे अल्लाह स्वीकार करता है और प्यार करता है, वह सब कुछ जो एक व्यक्ति को उसके निर्माता के करीब लाता है। इसमें वह सब कुछ शामिल है जिसे अल्लाह ने क़ुरआन में या अपने पैगंबर की सुन्नत के माध्यम से बताया है। इसमें 'बाहरी' पूजा जिसमे शामिल है दैनिक प्रार्थना, उपवास, दान और तीर्थयात्रा के साथ-साथ 'आंतरिक' पूजा जैसे विश्वास, श्रद्धा, आराधना, प्रेम, कृतज्ञता और आस्था के छह अनुच्छेदों में विश्वास। पूजा का एक कार्य तब तक स्वीकार नहीं किया जाता जब तक कि वह निम्नलिखित के अनुरूप न हो:

(i) यह विशेष रूप से अल्लाह के लिए किया जाये और किसी का भी इसमें कोई हिस्सा नहीं होना चाहिए। आत्मा की मूल इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी पूजा नहीं करनी चाहिए, जैसे प्रशंसा या दिखावे के लिए। ला इलाहा इल्लल्लाह का यही अर्थ है।

(ii) यह पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए। इसमें बिना कुछ जोड़े या भूले उसी सटीक तरीके से किया जाना चाहिए जैसा पैगंबर ने किया था। मुहम्मद रसूल-अल्लाह का यही आशय है।

अल्लाह शरीर, आत्मा और दिल की हर तरह की पूजा का हकदार है। यह तब तक अधूरा रहता है जब तक कि इसे अल्लाह के प्रति श्रद्धा और भय, ईश्वरीय प्रेम और आराधना, ईश्वरीय प्रतिफल की आशा और अत्यधिक विनम्रता से न किया जाए। अल्लाह के सिवा किसी और की पूजा करना शिर्क कहलाता है, चाहे वो पैगंबर, स्वर्गदूत, जीसस, मैरी, मूर्तियां, या प्रकृति ही क्यों न हो और यह इस्लाम में सबसे बड़ा पाप है।

(d) अल्लाह अपने सबसे खूबसूरत नामों और गुणों से जाना जाता है

अल्लाह अपने सबसे खूबसूरत नामों और गुणों से जाना जाता है जैसा क़ुरआन और सुन्नत मे है, स्पष्ट अर्थ को भ्रष्ट या अस्वीकार किए बिना, "कैसे" की कल्पना किया बिना या मानव शब्दों के रूप में सोचें बिना।

“और अल्लाह ही के शुभ नाम हैं, अतः उसे उन्हीं के द्वारा पुकारो ” (क़ुरआन 7:180)

इसलिए अल्लाह के लिए परमात्मा, लेखक, सार, शुद्ध अहंकार, निरपेक्ष, शुद्ध विचार, तार्किक अवधारणा, अज्ञात, अचेतन, अहंकार, विचार, या बड़ा आदमी जैसे नामो का उपयोग करना अनुचित है। कोई भी जो अल्लाह का नाम लेना चाहता है वह क़ुरआन या सुन्नत में आये नामों का उपयोग करें।अल्लाह के नाम उसकी पूर्णता और कमियों से मुक्ति का संकेत देते हैं। अल्लाह भूलता नहीं, सोता या थकता नहीं। अन्य सभी गुणों की तरह उसकी दृष्टि भी मनुष्य की दृष्टि जैसी नही है। वह अन्यायी नहीं है, और उसका कोई पुत्र, माता, पिता, भाई, सहयोगी या सहायक नहीं है। वह पैदा नहीं हुआ और न ही कोई उससे पैदा हुआ है। उसे किसी की जरूरत नहीं है क्योंकि वह परिपूर्ण है। वह इंसानों जैसा नहीं बनता और उसे मानवीय पीड़ा को "समझने" के लिए ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अल्लाह सर्वशक्तिमान (अल-क़वी), एक अतुलनीय (अल-अहद), पश्चाताप को स्वीकार करने वाला (अल-तव्वाब), सबसे दयालु (अ-रहीम), हमेशा रहने वाला (अल-हयी), सभी को पालने वाला (अल-कयूम), सर्वज्ञ (अल-अलीम)), सब सुनने वाला (अल-समी), सब देखने वाला (अल-बसीर), क्षमा करने वाला (अल-'अफुव), मदद करने वाला (अल-नसीर), और बीमारों को ठीक करने वाला (अल-शफी) है। क़ुरआन और सुन्नत में कई अन्य नामों का उल्लेख है।

सभी प्रशंसा और महिमा उसकी पूर्णता के लिए है।



फुटनोट:

[1] एक सर्वोच्च कानूनविद के अस्तित्व से सिद्ध ईश्वर के अस्तित्व को पश्चिमी धर्मशास्त्रियों द्वारा 'नैतिक' तर्क कहा जाता है।

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