एक मुस्लिम विद्वान की भूमिका (2 का भाग 1)
विवरण: एक मुस्लिम विद्वान के गुण।
द्वारा Aisha Stacey (© 2015 NewMuslims.com)
प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022
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उद्देश्य:
·यह समझना कि एक मुसलमान को क्या चीज़ विद्वान बनाती है।
·मुस्लिम उम्मत के लिए एक मुस्लिम विद्वान की भूमिका को समझना।
अरबी शब्द:
·आलिम - (बहुवचन: उलमा) वह जिसके पास ज्ञान है। यह शब्द आमतौर पर एक मुस्लिम धार्मिक विद्वान को संदर्भित करता है।
·फ़क़ीह - (बहुवचन: फ़ुक़हा) एक न्यायविद, यानी वह जो इस्लाम, उसके कानूनों और न्यायशास्त्र की गहरी समझ रखता हो।
·इज्तिहाद - विद्वानों का प्रयास जिसके माध्यम से एक न्यायविद/विद्वान क़ुरआन और सुन्नत के आधार पर इस्लामी कानून लाता है।
·मुजतहिद - वह जो इज्तिहाद करने के योग्य है।
·उसूल - किसी चीज के सिद्धांत, जड़ें, नींव या मूल तत्व।
·फ़िक़्ह - इस्लामी न्यायशास्त्र।
·इसनद - किसी भी हदीस को बताने वालो की श्रृंखला।
·हदीस - (बहुवचन - हदीसें) यह एक जानकारी या कहानी का एक टुकड़ा है। इस्लाम में यह पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों के कथनों और कार्यों का एक वर्णनात्मक रिकॉर्ड है।
·सहाबा - "सहाबी" का बहुवचन, जिसका अर्थ है पैगंबर के साथी। एक सहाबी, जैसा कि आज आमतौर पर इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है जिसने पैगंबर मुहम्मद को देखा, उन पर विश्वास किया और एक मुसलमान के रूप में मर गया।
·शरिया - इस्लामी कानून।
·उम्मत - मुस्लिम समुदाय चाहे वो किसी भी रंग, जाति, भाषा या राष्ट्रीयता का हो।
·फतवा - (बहुवचन: फतावा) एक मान्यता प्राप्त प्राधिकरण द्वारा दिए गए इस्लामी कानून के एक बिंदु पर एक निर्णय।
·सुन्नत - अध्ययन के क्षेत्र के आधार पर सुन्नत शब्द के कई अर्थ हैं, हालांकि आम तौर पर इसका अर्थ है जो कुछ भी पैगंबर ने कहा, किया या करने को कहा।
·दावा - कभी-कभी दावाह भी कहा जाता है। इसका अर्थ है दूसरों को इस्लाम में बुलाना या आमंत्रित करना।
वह जो लोगों को इस्लाम में बुलाता है या नेक इरादे अपना ज्ञान सिखाता है, वह एक महान इनाम के लिए निश्चित हो सकता है। पैगंबर मुहम्मद (उन पर अल्लाह की दया और आशीर्वाद हो) ने कहा, "मेरी ओर से पहुंचाओ, भले ही वह एक पद्य ही क्यों न हो।" उन्होंने यह निर्धारित नहीं किया कि व्यक्ति को विशाल ज्ञान होना चाहिए; बल्कि उन्होंने यह निर्धारित किया कि वह जो पढ़ा रहा है उसे उसका ज्ञान होना चाहिए। जो पढ़ाते हैं वह स्वत: विद्वान नहीं हो जाते। विद्वानों के पास विशेष लक्षण और गुण और इस्लामी शिक्षा का एक उच्च स्तर होता है।
अरबी में विद्वान के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द आलिम है। यह एक ऐसा शब्द है जो फकीह और मुजतहिद शब्दों के समान अर्थ रखता है; ये सभी सबूतों के माध्यम से एक शरिया शासन लाने का प्रयास करते हैं। यह आम तौर पर वह व्यक्ति होता है जिसने इज्तिहाद के लिए आवश्यक उपकरण और जरुरी ज्ञान प्राप्त करने में कई साल बिताए हैं।
20वीं शताब्दी के सबसे प्रसिद्ध विद्वानों में से एक, शेख इब्न उथैमीन ने बहुत ही संक्षेप में वर्णन किया है कि एक मुसलमान को विद्वान बनने के लिए किस शैक्षिक स्तर की आवश्यकता है।[1] उनके शब्द नीचे दिए गए हैं। विद्वान बनने के लिए ये जरुरी ज्ञान पुरुष और महिला दोनों पर लागू होता है।
सबसे पहले, उसे (मुजतहिद को) उन सबूतों का ज्ञान होना चाहिए जो उसे इज्तिहाद के उद्देश्य के लिए चाहिए , जैसे कि क़ुरआन के छंद और वह हदीसें जिसमे शासन की बात हो। उसे हदीस की सुदृढ़ता या कमजोरी से संबंधित मामलों का ज्ञान होना चाहिए , जैसे कि इस्नाद, और इस्नाद में कथावाचक। इसके बाद उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि क्या चीज़ निरस्त करती है और क्या निरस्त किया गया है और वह मुद्दे जिन पर आम सहमति है। उसे निर्णय को प्रभावित करने वाले विभिन्न मामलों का ज्ञान होना चाहिए, जैसे कि विशिष्ट अर्थों की रिपोर्ट, सीमा निर्धारित करने वाली रिपोर्ट, और ऐसे अन्य। उसे अरबी भाषा और उसूल अल-फिक़्ह (इस्लामी न्यायशास्त्र के सिद्धांत) का भी ज्ञान होना चाहिए जिसका मौखिक साक्ष्य से लेना-देना है, जैसे कि सामान्य क्या है और क्या विशिष्ट है, निरपेक्ष क्या है और क्या प्रतिबंधित है, संक्षेप में क्या उल्लेख किया गया है और विस्तार से क्या उल्लेख किया गया है, और ऐसे अन्य, ताकि उसके फैसले उस साक्ष्य द्वारा इंगित किए गए अनुसार हो। अंत में उसके पास क्षमता होनी चाहिए कि वह ज्ञान का उपयोग साक्ष्यों की जांच करने और निर्णय देने के लिए कर सके।
यह ध्यान देना चाहिए कि आलिम, फकीह और मुजतहिद शब्दों का उपयोग किसी ऐसे व्यक्ति के लिए नहीं करना चाहिए जो सिर्फ इस्लामी नियमों के बारे में बोलता हो या स्कूलों, विश्वविद्यालयों या सांस्कृतिक केंद्रों में इस्लामी सामग्री पढ़ाता हो, और न ही इसका उपयोग उन सभी के लिए करना चाहिए जो दावाह का काम करते हैं। ये शब्द विद्वानता के एक स्तर को दर्शाते हैं जिसे आसानी से हासिल नहीं किया जा सकता है और इसमे अक्सर दशकों का अध्ययन होता है।
पैगंबर मुहम्मद ने ज्ञानी लोगों या विद्वानों की श्रेष्ठता के बारे में बहुत ही स्पष्ट रूप से बात की थी। "किसी भक्त की तुलना मे आलिम की श्रेष्ठता वैसी है जैसे एक उपासक की तुलना मे मेरी श्रेष्ठता या रात में सितारों की तुलना मे पूर्ण चंद्रमा की श्रेष्ठता, और वास्तव में विद्वान पैगंबरो के वारिस हैं, और वास्तव में पैगंबर अपने पीछे सोना या चान्दी नहीं छोड़ के जाते, वे ज्ञान को अपनी विरासत के रूप मे छोड़ के जाते हैं। इसलिए जो कोई भी ज्ञान प्राप्त करता है वह बहुत बड़ा भाग्य प्राप्त करता है।”[2]
कौन विद्वान है और कौन नहीं, यह जानना का हर मुसलमान को प्रयास करना चाहिए। इस डिजिटल युग में जहां जानकारी स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है और हम आसानी से देख सकते हैं, यह उन लोगों के लिए खुद को इस्लामी विद्वान बताना बहुत आसान है जो इसके योग्य नहीं हैं और वे दिल और दिमाग पर जो नुकसान पहुंचा सकते हैं वह कभी-कभी ठीक नहीं होता है। जब एक अयोग्य व्यक्ति धार्मिक निर्णय देता है तो लोग पथभ्रष्ट हो सकते हैं। अरबी से अनुवादित किसी पुस्तक को पढ़ने से पाठक विद्वान नहीं हो जाता। वह निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। कैमरे के सामने बोलना और उसे यू ट्यूब पर पोस्ट करना विद्वानों की निशानी नहीं है।
एक मुस्लिम विद्वान की भूमिका लोगों को सही रास्ते पर ले जाने और अल्लाह को महसूस करवाने और अल्लाह के करीब जाने में मदद करना है। उन्हें न केवल क़ुरआन और सुन्नत की व्याख्या करने में सक्षम होना चाहिए, बल्कि उन्हें इस्लाम की शुरुआत के बाद से विकसित हुई विद्वता की व्याख्या करने में सक्षम होना चाहिए। इस बात को हल्के में नहीं लेना चाहिए। वास्तव में यह इतनी अधिक जिम्मेदारी का काम है कि सहाबा और उनका अनुसरण करने वाले सक्षम होने पर भी धार्मिक निर्णय देने से बचते थे।
ऐसा कहा जाता है कि शरिया के महान विद्वानों में से एक, अब्दुर-रहमान इब्न अबू लैला ने कहा, "मैं एक सौ बीस सहाबा से मिला था। मैंने इनमें से हर एक साथी से विशिष्ट शरिया मुद्दों के बारे में पूछा था, ताकि एक निर्णय मिल सके, लेकिन उन्होंने निर्णय देने से परहेज किया और इसके जवाब के लिए किसी अन्य साथी के पास भेज दिया। वे गलत जवाब देने से डरते थे ताकि वे अल्लाह के सामने जिम्मेदार न हों।" इसकी तुलना उस सहजता से करें जिसके साथ अयोग्य लोग आज कल के समय मे निर्णय देते हैं।
अध्ययन के इस स्तर के कारण, विद्वान मुस्लिम उम्मत के बीच बहुत उच्च स्थान रखते हैं। यह उनकी भूमिका है कि वो लोगों को अल्लाह के नियमों का पालन करवाने और सभी चीजों जैसे विश्वास, पूजा, नैतिकता, सदाचार, व्यवहार और सामाजिक संबंधों में एक मध्यम मार्ग पर रहने में मदद करें और प्रोत्साहित करें।
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि विद्वानो से भी गलती हो सकती है। वे पैगंबरो के उत्तराधिकारी हैं, लेकिन वे भी इंसान हैं, इनमे भी मानवता के साथ आने वाली सभी कमजोरियां और खामियां होती है। यह भी एक कारण है कि विद्वान धार्मिक फैसलों या फतवा को हल्के में नहीं लेते हैं।
इमाम मलिक[3] से एक बार बाईस विभिन्न न्यायिक मुद्दों के बारे में पूछा गया था। उन्होंने केवल दो का जवाब दिया। इनका उत्तर देते हुए उन्होंने अल्लाह से सहायता मांगने के लिए दुआ की और वह जवाब देते समय जल्दबाजी नहीं कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि "तुम में से जो फतवा देने मे जल्दबाजी करता है, वह उस व्यक्ति के समान है जो अपने आप को आग में झोंकने के लिए जल्दबाजी करता है।" इस तरह के कथन निर्णय लेते समय गहन विचार के महत्व पर जोर देती हैं। विद्वान धैर्यवान और विचारशील होता है।
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